*** सुख की उपभोक्तावादी परिभाषाओं के विरूद्ध : ईदगाह


दगाह पढ़ कर प्रायः पहला विस्मय हामिद के बारे में होता है। ऐसा बच्चा सचमुच का हो सकता है क्या। उम्र चार पांच साल। गरीब सूरत गरीब हालत। दादी का इकलौता अनाथ। अड़ोसियों पड़ोसियों की अभिभावकता में साथी बच्चों के साथ गांव से शहर तक पैदल चल कर जाता है , सारे दिन भूखा प्यासा मेले में भटकता है और भूखा ही लौट आता है क्योंकि दादी के हाथों को जलने से बचाने के लिये एक चिमटा खरीदना ज्यादा ज़रूरी था। बहुत दिनों तक इस कहानी के विषय में चर्चा हामिद के चरित्र की स्वाभाविकता और बाल मनोविज्ञान की समझ के आस पास घूमती रही। स्वयं प्रेमचंद ने अपनी ओर से ऐसे अनेक विवरण जुटाये हैं जो स्वाभाविकता की कसौटी पर हामिद के चरित्र के औचित्य को प्रमाणित करते हैं। हम कह सकते हैं कि कहानी के भीतर इस स्वाभाविकता का अर्जन किया गया है। पाठक इस संदर्भ में अपनी इच्छा और अनुभव के दायरे के अनुसार पक्ष और विपक्ष दोनो ओर से तर्क जुटा सकता है। यथार्थ और स्वाभाविकता की हमारी कसौटी प्रायः इसी के द्वारा निर्धारित होती है कि हमारा अपना अनुभव और दूसरों के अनुभव के बारे में हमारी जानकारी की सीमा क्या है। किसी कृति पर इस संदर्भ में टिप्पणी करते समय हम इसे बिना किसी किस्म की आत्मसजगता के अंतिम और संपूर्ण मान लेते हैं और इस आधार पर फैसला सुना देते हैं कि कहानी के बाहर जितने बच्चे हमने देख रखे हैं हामिद का औसत व्यवहार उनसे मेल खाता है या नहीं। हम इस बात की छूट देना भी याद नहीं रखते कि विपन्नता की जिस हद पर रहते हुए और दादी के प्यार की खूराक से पोषित होते हुए हामिद जीना सीख रहा है वह हमारे मध्यवर्गीय अनुभव की सीमाओं के बाहर अतः अपरिचित सा ज्ञात होते हुए भी हामिद के संदर्भ के लिये स्वाभाविक हो सकता है। वह उस संसार का वासी है जिसके बच्चे अपना बचपना जल्दी खो देते हैं। चार पांच साल की उम्र के इस बेहद गरीब बच्चे के चारो ओर एक बड़ा सा मेला है। बच्चे की जेब में कुल तीन पैसे है जिन्हे लेकर वह खरीदार की हैसियत से इस मेले में मौजूद है। इस मेले में वह अकेला नहीं है। उम्र में उससे थोड़ा ही बड़े हैसियत में उससे कुछ ही बेहतर उसके दोस्त भी साथ में मौजूद हैं। सामान्यतः उन्हें भी उसी विपन्न समाज और उसी वंचित बचपन के साकार अभिप्रायों के रूप में देखा जा सकता है लेकिन हामिद का आचरण अन्यों की तुलना में भिन्न और विशिष्ट होकर उभरता है। ये बाकी बच्चे हामिद के इसी आचरण की भिन्नता को एक परिप्रेक्ष्य देने और रेखांकित करने का कथात्मक उद्देश्य निभाने के साथ साथ यह भी रेखांकित करते हैं कि गरीबी की अंतिम रेखाओं के आसपास जीते हुए भी भूखे पेट सो रहने की विवशता ,आधापेट खा पाना, भरपेट खाने को पा जाना ,कभी कभी मनपसंद भी खा सकने की विलासिता की औकात रखना आदि देखने में भले ही उसी एक स्थिति की निकट श्रेणियां प्रतीत होती हों वस्तुतः वे एक दूसरे से गुणात्मक रूप से भिन्न जीवनस्थितियां हैं। हामिद पहली कोटि की विपन्नता के संसार का वासी है। मातापिताविहीन होने के कारण भावात्मक रूप से भी असुरक्षित हैं। उसके पास एक अकेली दादी है जो अपनी है। इन सारे संदर्भों को देखते हुए यह निष्कर्ष अनुचित नहीं कि कम से कम स्वयं प्रेमचंद ने तो पूरी यात्रा हामिद के बोध और तर्क की सीमाओं के साथ तय की है। 

लेकिन इतना भर तय पा जाने से ज्यादा ज़रूरी कहानी के संदर्भ में यह सवाल है कि हामिद के चरित्र को यह अभिप्राय देकर प्रेमचंद कहना क्या चाहते थे। क्या वे केवल भावोद्वेलन का एक अश्रुगलद अवसर जुटा रहे थे या कि हामिद का निर्णय उनके कथ्य के हिसाब से एक अनिवार्य निर्णय है। अपने मंतव्य को उन्होंने विवरण के संयोजन द्वारा आदि से अंत तक कहानी में गूंथा है। कहीं ये विवरण स्थानीय परिवेश के चित्रण में तो कहीं बच्चों के आपसी व्यवहार में मुखर होते हैं।

घटनाक्रम कुल इतना है कि ईद की तैयारियां हैं। सारे गांव में चहल पहल और गहमागहमी है। कोई कर्ज़ा लेने दौड़ा जा रहा है तो कोई मांगने जांचने। इस गांव में त्यौहार इसके सिवा और कैसे मनाया जायेगा। हामिद की दादी के लिये मांगे का ही तो भरोसा ठहरा। घनघोर गरीबी से उत्पन्न हताशाओं और मज़बूरियों के बावजूद यह जीवन के समारोह की कहानी है। यह समारोह जीवन के प्रति एक विशेष रूख और रवैये का परिणाम है जो उत्कट जिजीविषा से पैदा होता है। मेले तक जाने नमाज़ पढ़ने मेले में घूमने और लौट आने की यात्रा में हर टुकड़ा इस मंतव्य द्वारा एकसूत्रित होकर सार्थक है। पूरी संरचना में एक भी बात ऐसी नहीं है जो महज़ घटनाक्रम का हिस्सा हो या महज़ खाली जगह को भरने के लिये इस्तेमाल की गयी हो।

ईदगाह बच्चों के मुख से बचपन की स्वाभाविकता को सुरक्षित रखते हुए ही वयस्क अभिप्रायों की कहानी है। इसका नाम भले ही ईदगाह है विस्तार का अधिकांश शहर की ओर प्रस्थान मेले के बाज़ार और शहर से वापसी के प्रसंगों से घिरा हुआ है। जाते समय की बातचीत के रास्ते में कॉलेज है क्लब है कचहरी है। पुलिस और वकील भी है। यह एक विस्मयलोक है जहां के बारे में या तो केवल अनुमान और कल्पनाएं संभव हैं या फिर व्यंग्य उपहास व अवमानना के द्वारा किंचित क्षतिपूर्ति भी। आधुनिकता के साथ पहला आमना सामना अधूरे ओर विकृत औद्योगीकरण शहरीकरण बेहतर अवसरों की तलाश या अनुपलब्ध रोज़गार की मज़बूरी में गांवों से शहरों को प्रस्थान के कारण सामाजिक गतिशीलता के द्वारा हुआ था। एक अर्थ में यह तत्कालीन बोध के अनुसार अपसंस्कृतीकरण का हमला भी था। प्रेमचंद उसके चश्मदीद गवाह थे।शहरीकरण का सीधा नतीजा गांव पर अनपेक्षित दबाव है जिससे क्षति और परिहास के रूप में एक लाचार किस्म की क्षतिपूर्ति की गुंजाइश पैदा होती है। ईदगाह की ओर प्रस्थान एक तरह से शहर और गांव का आमना सामना है। बातचीत बच्चों के बीच है लेकिन मंतव्य प्रेमचंद का हालांकि यह पूरी तरह से बच्चों की ही बातचीत है। शहर की ओर प्रस्थान उस विस्मयलोक की ओर प्रस्थान है जहां जाकर ही जीवन का यह समारोह मनाया जा सकता है। इस क्रम में मांगे की या उधार की पूंजी को शहर के हाथों गंवाने के सिवा और कोई चारा नहीं। 

शहर की तड़क भड़क के बीच अपने पात्रों को पहुंचाने के बाद प्रेमचंद की टिप्पणी है ग्रामीणों का यह छोटा सा दल अपनी विपन्नता से बेख़बर संतोष और धैर्य में मगन चला जा रहा था। ये केवल सामान्य विवरण नहीं ऐसे विशेषण हैं जो प्रेमचंद के मंतव्य को खोलने की कुंजी हैं। ये प्रेमचंद के लिये भारतीय जीवन के केन्द्रीय मूल्यों का दर्जा रखते हैं। उन्होंने परंपरा से इन मूल्यों को विरासत में पाया है और इन पर अभिमान द्वारा वे एक ओर स्वाधीनता संग्राम में भारतीय अस्मिता को तो दूसरी ओर अपने प्रतिपक्ष यानी पूंजीसमर्थित साम्राज्यवादी प्रसार और औपनिवेशिक रणनीति को इनके विलोम के रूप में परिभाषित करते हैं।

प्रेमचंद के लिये विपन्नता से यह बेखबरी, यह संतोष और धैर्य वस्तुतः क्या अर्थ रखते हैं ? अभाव और गरीबी का महिमामंडन जो वस्तुतः गरीबी के ख़िलाफ़ एक कवच की तरह इस्तेमाल होना है ? या ग़रीबी के विरूद्ध अपनी अवशता का ही एक विकट परिणाम जो काल्पनिक रूप से उच्चतर प्रतीत होने वाली मूल्यव्यवस्था की एक मनोतोषी पद्धति बन जाता है ? या औपनिवेशिक शासन की महाजनी सभ्यता द्वारा भारतीय उत्पादनतंत्र को नष्ट करके अपना कब्ज़ा जमाने, उसे कच्चे माल के स्रोत तथा तैयार विदेशी माल के बाज़ार में बदलने के लिये अपनाई गयी नीतियों के साथ असहमति के अलावा बाज़ारीकरण के ख़िलाफ़ एक हथियार भी ?

ईदगाह की ओर प्रस्थान की यात्रा में गांव और शहर की प्रतिपक्षता स्थापित कर चुकने के बाद प्रेमचंद ईदगाह का दृश्य खींचते हैं जहां नमाज़ पढ़ चुकने के बाद यह ग्रामीणदल ईदगाह के बाहर यानी मेले और बाज़ार में प्रविष्ट होता है। यह भी एक और तरह का आमना सामना है ईदगाह और बाज़ार के बीच रोज़ेदारों की पंक्तियां एक के पीछे एक न जाने कहां तक चली गयी हैं . . .नये आनेवाले आकर पीछे की कतार में खड़े हो जाते हैं। आगे जगह नहीं है। यहां कोई धन और पद नहीं देखता। इस्लाम की निगाह में सब बराबर हैं . . . कितना सुंदर संचालन है कितनी सुंदर व्यवस्था। लाखों सिर एक साथ सिज़दे में झुक जाते हैं फिर सबके सब एक साथ खड़े हो जाते हैं एक साथ झुकते हैं और एक साथ घुटनों के बल बैठ जाते हैं। कई बार यही प्रक्रिया होती है जैसे बिजली की लाखों बत्तियां एक साथ प्रदीप्त हों और एक साथ बुझ जायें और यही क्रम चलता रहे। कितना अभूतपूर्व दृश्य था जिसकी सामूहिक क्रियाएं विस्तार और अनंतता हृदय को श्रद्धा गर्व और आत्मानंद से भर देती थी मानो भ्रातृत्व का एक सूत्र इन समस्त आत्माओं को एक लड़ी में पिरोये हुए है।

ईदगाह का यह चित्र प्रेमचंद की आकांक्षा का रूपक है और बाज़ार इसका विलोम। यह स्वर्गीय दृश्य केवल ईदगाह के भीतर सबकी मौजूदगी तक ही मौजूद है बाहर बाज़ार में निकलते ही वह अप्रासंगिक हो जाता है। वहां बाज़ार ही इच्छा और व्यवहार का नियंता हो जाता है। बच्चों के व्यवहार में बालसुलभता कायम रखते हुए पुनः वयस्क अभिप्राय दोहराये जाते हैं। शहर की ओर आते समय की यात्रा के साथी बच्चों का साझा विस्मय स्नेह सौहार्द और क्षतिपूर्ति का भोला निश्छल हास्य गायब हो चुका है। इस समय वे केवल प्रतियोगी हैं। हामिद के पास केवल तीन पैसे हैं। मोहसिन के पास पंद्रह पैसे हैं और महमूद के पास बारह। हामिद के मुकाबिले में तो वे धन्ना सेठ हैं। उसके हिस्से में सिर्फ़ ललचाना और ईर्ष्या प्रतियोगिता अवमानना और क्रूरता के बाज़ार प्रेरित व्यवहारों का पात्र बनना लिखा है। और बच्चे हैं कि उनके लिये केवल खरीदना खेलना और खाना काफ़ी नहीं है, दूसरे को दिखाना, ललचाना और देने का दिखावा करके खुद खा जाना भी ज़रूरी है। इसके बिना खरीदने का संतोष महसूस नहीं होता। नेबर्स एन्वी ओनर्स प्राइड उपभोक्ता मनोविज्ञान का मूल मंत्र है जिसके सहारे बाज़ार बड़े पैमाने पर खरीदार को गाहक में बदलता और संचालित करता है।

विदेशी पूंजी और विदेशी माल से पटे हुए बाज़ार के संदर्भ में प्रेमचंद के लिये संतोष और धैर्य का चाहे जो अर्थ रहा हो आज के संदर्भ में और नये अर्थशास्त्र की परिभाषाओं के दायरे के भीतर विकास का जो मॉडल हमारे पास है वह मूल रूप से संतोष के विरूद्ध और निरंतर अपूरणीय लालसा और अतृप्ति का पक्षधर है। शांति और आनंद जैसे पुराणपंथी लक्ष्यों की बजाय निरंतर उत्तेजना और निरंतर सनसनी इस आदर्श के अनुसार जीवन के अनुसरणीय ध्येय हैं बल्कि स्वयं जीवन के लक्षण।

नया अर्थशास्त्र याकि बाज़ार का सीमाहीन विस्तार यानी भूमण्डलीकरण साम्राज्यवाद का नया नाम है और औपनिवेशीकरण का नया चेहरा। प्रेमचंद की प्रासंगिकता के संदर्भ में प्रायःस्थापित यह सोच और समझ अब तक बहुत सहज जान पड़ती रही है कि उनका कथाजगत सच्चे अर्थों में तत्कालीन समाज का दस्तावेज है। आजतक अगर वह अधिकांशतः उसी रूप में सार्थक और प्रासंगिक बना हुआ है तो इसलिये कि बहुत सीमा तक समाज और उसकी समस्याएं वहीं की वहीं हैं, ऐसा मान लिया जाता है। लेकिन वास्तव में समाज आज वही का वही नहीं रह गया है। यह नया अर्थशास्त्र समाज को बहुत तेज़ी से बदल रहा है। वह जीवन को रूपायित नियंत्रित और संचालित करते हुए बदलाव की गति को इतना तीव्र किये दे रहा है कि विगत डेढ़ दो दशकों में ही पिछली सूरत पहचान के बाहर हो चुकी है। गति की तीव्रता स्वयं एक ऐसा कारक तत्त्व बन गयी है कि संवेदना को स्तब्ध भीत और चकित के अलावा अपर्याप्त भी साबित कर रही है। प्रेमचंद के समय की स्वाधीनतासंग्राम की परिस्थिति आज नहीं है। दो विलोम मूल्यव्यवस्थाओं और जीवनपद्धतियों का आमना सामना भी आज नहीं है। उस प्रतिपक्षता के कारण जो प्रतिरोध प्रेमचंद के समय में बुनियादी था और उनके बाद की पीढ़ी के लिये अनुकरणीय होते जाने के बावजूद दमित और शोषित होने के कारण स्वाधीनता की आकांक्षा के रूप में शेष बचा रहा था वह स्वाधीनताप्राप्ति के बाद स्वेच्छा से विसर्जित कर दिया गया। भूमण्डलीकरण हमे आज साम्राज्यवाद का नया नाम और औपनिवेशीकरण का नया चेहरा नहीं प्रतीत होता बल्कि एक अवसर प्रतीत होता है। किस बात का अवसर, किन लोगों के लिये अवसर , यह दिखना कुछ कुछ शुरू हो चुका है लेकिन आंख खुलना अभी बाकी है। नये सिरे से उन मूल्यों की प्रासंगिकता या अप्रासंगिकता खोजने का अवसर यह ज़रूर है जिन्हें लेकर कभी भारतीय अस्मिता को परिभाषित किया गया था और जिनके सहारे संग्राम का सामना किया गया था। नये अर्थशास्त्र मेँ भूमण्डलीकरण के विरूद्ध आशंका और चेतावनी की कमी नहीं लेकिन फ़िलहाल चकाचौंध में उसकी पक्षधरता का पलड़ा भारी है। विश्वप्रसिद्ध अर्थशास्त्री जगदीश भगवती के ये तर्क इस पक्ष का प्रतिनिधित्व करते हैं पिछली नीतियों की त्रासदी यह है कि वे आजमा कर देखी जा चुकी हैं और असफल रहीं। उनकी वापसी अब संभव नहीं। विचारधारा के पक्षधरों को यह याद नहीं या शायद पता ही नहीं कि इन नीतियों में से अनेक का कारण विचारधारा ही थी। गरीबी हटाओ कई दशकों तक बिना किसी उपलब्धि के केवल एक नारा बना रहा। नयी नीतियों ने गरीबी को घटाने में प्रत्यक्ष रूप से मदद की है। इनके कारण हम हमारे निर्धन जन भी आज चढ़ती आकांक्षाओं की क्रान्ति के दौर में पहुंच चुके हैं। संतोष का पाठ पढ़ाना व्यर्थ है वह पढ़ा ही नहीं जायेगा। जब स्थितियां सुधरती हैं,कुछ होता हुआ प्रत्यक्ष दिखता है, कुछ मिल चुका होता है, तब यह दिल मांगे मोर की क्रान्ति घटित होती है। विकास के इस नये मॉडल में संतोष वस्तुतः हताशा और अवसाद से निकली हुई एक अस्वाभाविक स्थिति है। जब कुछ होता हुआ न दिखाई देता है न संभव प्रतीत होता है तब भाग्यवाद और नियति के प्रति समर्पण ही संतोष बन कर लौट आता है। 
– ' इन डिफेंस ऑफ़ ग्लोब्लाइज़ेशन' के आधार पर।

इस संदर्भ में प्रेमचंद नये सिरे से प्रासंगिक होते दिखायी देते हैं और केवल इसलिये नहीं कि समाज वहीं का वहीं है बल्कि इसलिये कि आज के बदले हुए समाज के सिलसिले में वे भविष्यद्रष्टा से प्रतीत होते हैं। " विपन्नता से बेखबर, संतोष और धैर्य में मगन" ईदगाह का पात्रसमूह चढ़ती आकांक्षाओं की इस क्रान्ति के आसपास भी नहीं। लेकिन सामान्य मनुष्य की सहज प्रवृत्ति में ही लालसा का जो कर्ष शामिल है उससे वह अछूता भी नहीं। इसके आचरण के ज़रिये समझने की कोशिश की जा सकती है कि संतोष और धैर्य का अर्थ प्रेमचंद के लिये क्या रहा होगा। वह हताशा और अवसाद का परिणाम था या परंपरा से पाया हुआ स्वयं जूझ कर कमाया हुआ जीवन मूल्य? या मूल्य के नाम से महिमामण्डित किंतु वास्तव में आलस्य और अकर्मण्यता का एक आच्छादन? लालसा को नाथने का पुरूषार्थ या कि भाग्यवाद और नियति के सामने समर्पण?

उनके पीछे विपन्न भारत का लम्बा इतिहास था और सामने औपनिवेशिक शासन द्वारा राजनीतिक दमन तथा आर्थिक शोषण का वर्तमान। यह अहसास भी रहा ही होगा कि इस वर्तमान की हर समस्या का समाधान अतीत के पास नहीं खोजा जा सकता। कम से कम उन समस्याओं का तो नहीं ही जिनका जन्म एक भिन्न मूल्यपद्धति वाली तथा कई गुना अधिक सबल संस्कृति के साथ टकराहट से हुआ है। उनकी परंपरा ने मनुष्य के शत्रुओं को गिनाया था और मनुष्य के पुरूषार्थों को भी। काम क्रोध लोभ मोह की सूची में शत्रु की हैसियत से मौजूद काम धर्म अर्थ काम मोक्ष की सूची में पुरूषार्थ की हैसियत रखता है। काम को आज हम यौन के अर्थ में अनूदित कर चुके हैं अन्यथा वह कामना मात्र के मूल में मौजूद है। पुरूषार्थों में जो अर्थ है शत्रुओं में वह लोभ के नाम से अपनी पहचान रखता है। मनुष्य ने व्याख्या की अपनी क्षमता को दोधारे शस्त्र की तरह विकसित किया है। वह सकार और नकार दोनो दिशाओं में एक साथ ही प्रवृत्त हो सकती है। जिस परंपरा ने 'जब आवे संतोषधन सब धन धूरि समान' का मूल्य दिया होगा उसकी व्याख्या यह नयी बाज़ारव्यवस्था अवश्य हताशा का परिणाम तथा आलस्य और अकर्मण्यता के कारण के रूप में कर सकती है। इस व्यवस्था के प्रकाश में आज यह व्याख्या यथार्थ और प्रामाणिक सी प्रतीत भी हो सकती है। अनुभवसिद्ध सत्य यही है कि मौका मिलते ही प्रायः संतोष केवल एक आड़ और बहाना साबित होता है। लेकिन इतने मात्र से मूल्य के रूप में उसकी महत्ता और लक्ष्य के रूप में उसकी साध्यता असिद्ध नहीं हो जाती। मूल्य मौके की सुलभता से नहीं जीवनव्यवहार से सिद्ध होने वाली चीज़ है।

प्रेमचंद जिस परंपरा की उपज थे उसमें संतोष के पास एक मूल्यात्मक हैसियत थी और प्रेमचंद की पीढ़ी उसी परंपरा के सहारे स्वाधीनता की संग्रामचेतना को तथा औपनिवेशिक ताकतों के प्रति आलोचनादृष्टि को परिभाषित भी कर रही थी। कबीर की वाणी में संतोष की महिमा को भले ही हम पराजय के परिणाम तथा निर्धनता और अभाव के फल की तरह व्याख्यायित कर लें प्रेमचंदकालीन भारत अतीत के गौरव की जिस खूराक से अपनी संघर्ष चेतना को पोषित कर रहा था उसके संदर्भ में यह व्याख्या कारगर नहीं बैठती। संभावित यही है कि उसके लिये यह मूल्य' तेन त्यक्तेन भुंजीथा' की अनुगूंज रहा होगा प्राचीन इतिहास के उन पृष्ठों की अनुस्मृति जिनको वह एक समृद्ध समाज के लम्बे अनुभव की परंपरा से छन कर आया निचोड़ समझता रहा होगा। प्रेमचंद के लिये इसके भीतर दोनो ही अर्थ संचित रहे होंगे।

तेन त्यक्तेन के अनुसार त्याग द्वारा अनुशासित भोग की प्रस्तावना भी जो अनियंत्रित भोग के दुष्परिणामों इस संदर्भ में तीन चौथाई विश्व का उपनिवेशीकरण का निषेध है और' चाह गयी चिंता मिटी' में निहित एक विपन्न समाज द्वारा ओढ़ा गया कवच भी। तेन त्यक्तेन में भोग के निषेध नहीं मूल्यात्मक नियंत्रण की बात है जबकि चाह गयी चिंता मिटी में चाह मात्र का निषेध है जो असहज और अस्वाभाविक है। आर्षवाक्यप्रमाण की तरह बार बार दोहराई जाकर ये बातें अपना अर्थ खो बैठी हैं। इनके चलते सहज लालसाओं की सहज स्वीकृति भी संस्कारों के विरूद्ध सी जान पड़ती है। यथार्थ के प्रति आग्रह के कारण यदि स्वयं इन आर्षवाक्यों का निषेध कर भी दिया जाय तो एक जटिलतर समस्या उठ खड़ी होती है जिसके तहत संतोष जैसे किन्हीं स्वीकृत मूल्यों की न केवल अनुपस्थिति ही बल्कि उनके होने की संभावना मात्र के प्रति अनिच्छा और उपहास का भाव अनियंत्रित भोग को मूल्य का दर्जा दे देता है।

ईदगाह के मेले और बाज़ार में प्रेमचंद ने अपने बालक पात्रों के व्यवहार में इन अर्थछायाओं को गूंथा है। हामिद इस टोली में प्रेमचंद के मूल्यात्मक अभिप्राय का वाहक है। उसकी गरीबी की हद इतनी प्रत्यक्ष है कि संतोष को उसके संदर्भ से मुक्त करके देखना पूरी तरह से न संभव है न उचित। यह संतोष मनोवैज्ञानिक दृष्टि से असंभव और मानवीय दृष्टि असहज चाह मात्र के निषेध का सबक भी नहीं है। हामिद और उसकी ग़रीबी को यहां बाज़ार के विरूद्ध संतोष का पाठ पढ़ाने के लिये नहीं गढ़ा गया है। वह स्वयं इस बाज़ार में खरीदार की हैसियत से ही मौजूद है लेकिन बाज़ार के साथ उसका संबंध अपनी आवश्यकता के अनुसार बाज़ार के अनुशासन और अनुकूलन का है स्वयं बाज़ार के द्वारा उत्तेजित लालसाओं के दबाव से संचालित होने का नहीं। वह बाज़ार का भोक्ता है और उपभोक्ता होने से इंकार करता है।साथी बच्चों के साथ उसने भी हर दूकान की यात्रा की है लेकिन लुब्ध होने के बावजूद हर वस्तु के मूल्य को उसके दाम के साथ तोल कर देखा है। हिंडोले और चर्खी पर वह बैठता नहीं , खिलौने की दूकान से यह सोच कर लौट आता है कि कहीं हाथ से छूट पड़े तो चूर चूर हो जाये जरा सा पानी पड़े तो रंग धुल जाये। ऐसे खिलौने लेकर वह क्या करेगा, किस काम के। मिठाई की दूकान पर वह साथी बच्चों के क्रूर विनोद का शिकार भी बनता है लेकिन खुद को समझाता है कि खाएं मिठाइयां आप मुंह सड़ेगा . . . आप ही ज़बान चटोरी हो जायेगी . . . मेरी ज़बान क्यों ख़राब होगी। मूलभूत प्रश्न यह नहीं कि बाज़ार है ही क्यों। बाज़ार तो रहेगा ही क्योंकि वह जीवन की अनिवार्यताओं में से एक है । प्रश्न यह है कि खरीदार खुद बाज़ार के इशारों पर चलता है याकि बाज़ार के अपनी आवश्यकता के अनुसार चलाता है। उसके इन सारे निर्णयों के पीछे निस्संदेह पास के पैसों का कुल तीन होना निर्णायक रूप से मौजूद है। यहीं कहीं प्रेमचंद द्वारा प्रस्तावित संतोष का वह अभिप्राय भी निहित है जिसके सहारे लालसा के तर्कातीत साम्राज्य में जीवन को अर्थसंगत बना कर काबू में किया जाता है। 

चढ़ती आकांक्षाओं की इस तथाकथित क्रान्ति का तालमेल अगर भोक्ता की आर्थिक सामर्थ्य के साथ नहीं बैठता तो मूल्य के तौर पर संतोष उसे उपहास्य और श्रम द्वारा आर्थिक सामर्थ्य को बढ़ाने का प्रस्ताव मूर्खतापूर्ण भी प्रतीत होता है। उसका तर्क सीधा और सरल है कि जीवन केवल एक अवधि है जिसमें प्रतीक्षा का अर्थ भोग के समय का घटते जाना है। इस प्रकार से नष्ट होता हुआ समय वास्तव में नष्ट होता हुआ जीवन है। आर्षवाक्यों के सहारे पाये हुए लक्ष्यों को मूल्य की तरह स्वीकार करने का अर्थ वास्तव में उस व्यवस्था का शिकार बन जाना है जो अन्यायपूर्ण, अत्याचारी और हमारे विरूद्ध थी। श्रम, संतोष और ईमानदारी जैसे मूल्यों के विरूद्ध जाने का अर्थ उसे तोड़ना और अत्याचार का प्रतिकार करना है। यह वास्तव में परंपरा को तोड़ने का नहीं जीवन के अपराधीकरण को न्यायोचित ठहराने का तर्क है।

हामिद के साथी बच्चे अपनी खरीदारी के उपलक्ष्य खुद हैं और खुद अपने संदर्भ में भी लोभ और लालसा की तात्कालिकता से संचालित हैं। वे दाम चुकाते हैं लेकिन मूल्य के रूप में वापस क्या पाते हैं यह जांचने की समझदारी भी नहीं रखते। शहर से गांव को लौटते समय की यात्रा में हामिद के पास उसका चिमटा है जिसमें उसकी कुल पूंजी लग गयी है। उसके सोचे समझे पूंजी निवेश ने इस समय बाज़ी पलट दी है। हामिद ने हिसाब बराबर कर लिया है। इस बार के वार्तालाप में भी बच्चों के मुंह से बालसुलभ मुहाविरे में ही लेखकीय अभिप्राय व्यक्त होता है और चिमटे को एक रूपक में बदल देता है। जो सबसे ग़रीब और सस्ता है वही रूस्तमे हिंद है। उसके पास न्यायबल है और नीति की शक्ति। एक और मिट्टी है दूसरी ओर लोहा जो इस वक्त अपने को फ़ौलाद कह रहा है। वह अजेय है, घातक है। उसका मुंह आग में जलेगा वह आंधी पानी तूफ़ान में डटा खड़ा रहेगा। वह वकील का पेट फाड़ कर कानून पेट में डाल देगा। वह टूटेगा नहीं। वह अकेला अनेक भूमिकाएं निबाह लेगा। वह डरेगा नहीं क्योंकि उसके पास कुछ भी खोने के लिये है ही नहीं। वह रूस्तमे हिंद है। इस रूपक द्वारा प्रेमचंद हामिद और हामिद जैसों के लिये आगामी जीवन में संभाव्य भूमिका का निर्देश करते हैं। यह उन भावी जीवनस्थितियों का संकेत है जिन्हें साधारणतः निबाह ले जाना भी रूस्तमे हिंद जैसे पराक्रम की अपेक्षा रखता है। चिमटे की खरीदारी में हामिद ने भूख और लालसा के विरूद्ध इसी पराक्रम का परिचय दिया है। इस क्षण का रूस्तमे हिंद वही है। इसी निष्कर्ष को रेखांकित करने के लिये कहानी हामिद और चिमटे के पक्ष को न्यायबल और नीति की शक्ति से समन्वित बताती है। इसी निष्कर्ष की पूर्ण प्रतिष्ठा के लिये कहानी तब तक ख़त्म नहीं होती जब तक लोहे के मुकाबिले में मिट्टी के खिलौनों का हश्रोहवाल पूरा हो नहीं जाता। यह खरचो खरीदो खाओ खेलो फेंको की उपभोक्तावादी संस्कृति है जिसकी परिणति मिट्टी की खरीद में खून पसीने की कमाई से लेकर उधार की पूंजी तक को मिट्टी कर देने की नासमझी है।

इन खरीदारों की तुलना में उम्र में सबसे छोटा हामिद कुल तीन पैसे की पूंजी लेकर मेले में घूमता मिठाइयों और खिलौनो के लिये ललचाता अपने साथी अन्य बच्चों द्वारा चिढ़ाया जाता हुआ भूखा प्यासा लौट आता है क्योंकि कुल पूंजी खर्च करके उसने एक चिमटा खरीदा है जिससे उसकी दादी अमीना का हाथ रोटी सेंकते समय जलने से बच सके। हामिद और उसकी दादी के बीच का रिश्ता इस समूचे व्यवहार का प्रेरक कारण तथा शेष बच्चों के व्यवहार के आत्मकेन्द्रित लोभ का विलोम है। एक तरह से इसे बाज़ार के आचरण का भावात्मक समतोल कह सकते हैं। यह बाज़ार के अस्तित्व मात्र का निषेध नहीं बाज़ारवाद का विरोध है। विश्वप्रसिद्ध अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन के विचार में दिक्कत यह है कि बाज़ार को अपने आप में स्वतःसाध्य एक सत्य समझ लिया जाता है। जबकि कुछ ही चीज़ें स्वतःसाध्य हैं जैसे समता, स्वतंत्रता और आत्मनिभर्रता। बाकी सब केवल उपकरण हैं।

कहानी के आरंभ और अंत में अमीना पर ही फ़ोकस किया गया है। अमीना वह शाश्वत मातृमूर्ति है जो प्रेमचंद को प्रत्येक स्त्री में अपेक्षित थी। इसे हम चाहें तो पुरूषसत्ताक् मानसिकता या कि पितृसत्ता द्वारा अपेक्षित छवि का स्त्री पर अनपेक्षित दबाव कह लें या कि स्त्री के भावात्मक शोषण का मामला लेकिन प्रेमचंद के लिये यह पुरूष की तुलना में स्त्री की उन अतिरिक्त योग्यताओं की स्वीकृति है जिनमें से कुछ को हामिद अमीना के एकाकी अभिभावकत्व में अर्जित कर रहा है। इस संदर्भ में हामिद की उम्र और उससे जुड़ा भोलापन भी प्रेमचंद के अभिप्राय के वाहक हो जाते हैं अन्यथा उसे सात आठ या आठ दस वर्ष का लिख देने में कोई खास दिक्कत नहीं थी। हामिद का बाल्य के ठीक पहले का शैशव उसकी अतिरिक्त पात्रयोग्यता है कि अभी उसमें वे आत्मकेन्द्रित वयस्क तर्क नहीं जागे हैं कि वह सीधे सरल सत्य के विरूद्ध लालसा के पक्ष में न्याय और औचित्य को ले जाय। राजा को नंगा देखने की दृष्टि बच्चे में ही संभव है। अमीना के साथ निर्व्याज प्रेम इस निर्णय के मूल में है। अतिशय विपन्नता के बावजूद जीवन को जिस समारोह का रूप इस कहानी में दिया गया है उसका कारण यही प्रेम है और विपन्नता के कारण ही यह निर्णय संभव भी हुआ है जिसने जीवन को समारोह बना दिया है बच्चे हामिद ने बूढ़े हामिद का पार्ट खेला था। बुढ़िया अमीना बालिका अमीना बन गयी। वह रोने लगी। यही है वह भावना जो कीमत का असली मूल्य जताती है और कुल तीन पैसे को इतनी बड़ी पूंजी बना देती है कि उससे इतना बड़ा खजाना खरीदा जा सके। ग़रीब की रोती झींकती चिरमलीन तस्वीर के विपरीत इस तस्वीर में खुशी के एक एक क्षण को पकड़ रखने का, एक एक पैसे की कीमत को फैला कर मूल्य में बदल लेने का हौसला है। यह सुख की उपभोक्तावादी परिभाषाओं के विरूद्ध एक बयान है जो प्रेमचंद अपनी रचनाओं से महाजनी सभ्यता के विरूद्ध बार बार देते रहे हैं।

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साभार 


2 comments

Abhay Kumar June 14, 2017 at 9:47 PM

बहुत ही अच्छा लेख धन्यवाद।

प्रा.दादासाहेब खांडेकर July 28, 2020 at 10:12 PM

बहुत बढ़िया।