*** ‘क़िस्सा कोताह’ : एक कवि की बहक



क़िस्सा क्या है? कहानी का कच्चा माल, कहानियों के इस कच्चे माल को बरतने में राजेश जोशी ने कोई कोताही नहीं बरती और अपने पाठकों के लिए विधागत सीखचों के बंधन से मुक्त एक मुक्त-सा गल्प रच डाला. यह उन्मुक्तता किस्सा कोताह में छाई हुई है. मुक्त-सा इसलिए भी कि किस्सों को कहानी बनने में वक्त लगता है, एक पूरी प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता है लेकिन इससे पहले ही किस्सा हाथ छुड़ाकर कभी उपन्यास कभी शहर गाथा कभी आत्मकथात्मक संस्मरण तो कभी कोरी गपड़तान हो जाते हैं.

इस अर्थ में किस्सा कोताह हिन्दी की पहली और मजेदार ढंग से अकेली ऐसी रचना है जो पाठक की उस एक अजीब-सी लत को तोड़ने का काम करती है जिसके चलते पाठक किसी भी चीज को पढ़ने से पहले वह जान लेना चाहता है कि वह जिस किताब को पढ़ रहा है वह क्या है यानी पहले उसकी विधा तय होना चाहिए. बंधी-बंधाई बनी-बनाई मानसिकता या दूसरे शब्दों में कहें तो दूराग्रहों, पूर्वाग्रहों पर चोट करती राजेश जोशी की किस्सा कोताह, नयेपन की माँग करती है. भले ही आज के राजनीतिक आर्थिक समीकरणों के बीच यह एक गप्पी की गपड़तान ही क्यों ना लगे. ज़रूरी है इन क़िस्सों का ज़िंदा रहना, बनते रहना, सुनते रहना और सुनाया जाना, जिससे उदासीनता के वातावरण को भंग किया जा सके.

क़िस्सा कोताह पाँच किस्तों में बसा एक गप्पी का रोज़नामचा है जिसमें भोपाल के बहाने लोगों की आदतों, समस्याओं, आवश्यकताओं के कई-कई क़िस्से दर्ज हैं. इसमें दिखता है क़िस्सों का एक ऐसा अदृश्य शहर जिसका सारा फैलाव क़िस्से की सीमाओं तक ही महदूद था. ‘‘क़िस्सों के शहर के बीचों-बीच सपनों से बना एक तालाब था जो कभी सपने की तरह लगता और कभी एक डबडबाई आँख की तरह. उसमें चलती नावें बचपन की कागज़ की नावों से पैदा हुई थी. तालाब के भीतर ढलते हुए सूरज और उगते हुए चाँद का एक घर था. वह इतना सुंदर था कि आत्महत्या के इरादे से उसके पास आया व्यक्ति जैसे ही उसकी तरफ आँख उठाकर देखता तो भूल जाता कि वह तालाब पर किस लिए आया था. इसलिए सदियों की दास्तानों में उस तालाब में किसी के आत्महत्या करने का कोई हादसा दर्ज नहीं था.’’

क़िस्सा कोताह की पहली ही किश्त में राजेश जोशी उदासीनता के वातावरण से निकालकर मनुष्य के लिए एक ऐसे लोक का निर्माण करते हैं जहाँ वह अपनी पूरी रचनात्मक उर्जा के साथ जीवित बने रहने के लिए निरंतर संघर्षरत है. राजेश जोशी की एक कविता है : -
घृणा यूँ कोई बहुत चीज़ नहीं है
लेकिन उतनी बुरी भी नहीं कि
जहाँ ज़रूरी हो
वहाँ भी न की जा सके
क्या ज़्यादा बुरा नहीं है उदासीन हो जाना.
क़िस्से अपने पूरे कलेवर और बुनावट में इसी उदासीनता के विरूद्ध ही खड़े रहते हैं. विचारणीय है कि राजेश जोशी विधाओं के बंधन से मुक्त कहने और सुनने की उस शैली का चयन करते हैं जो आख्यानकों का वारिस है. वे बड़ी सतर्कता और सूझ-बूझ से यथार्थ और कल्पना की टूटी बिखरी कड़ियों के बीच उस ढीले-ढाले से सूत्र को पकड़ते हैं जिसका एक छोर परम्परा है और दूसरा भविष्य में. क़िस्सा कोताह उनकी श्रेष्ठ रचनाओं में इसलिए भी गिनी जाएगी वहाँ पाठक और क़िस्सों के बीच गहरा तादात्म्य स्थापित हो सका है.

क़िस्से कविता की तरह अपनी छूटी हुई जगहों में भी रिसने लगते हैं मानों कोई सोता फूटकर अजस्र धाराओं में जहाँ-तहाँ बहने लगा हो. हिन्दी में ऐसे लेखक कम ही हैं जिनके शब्द और विचार भाषा के उपकरणों को किनारे रख सीधे-सीधे लोक संवेदना के तमाम औज़ारों का इस्तेमाल करते हुए अंततः अपनी की तरह का आख्यानक रचते हैं. क़िस्सा कोताह के रूप में प्रस्तुत यह मुक्त-सा गल्प भले सिलसिलेवार न हो लेकिन उस असंबद्धता की भी एक संबद्धता होती है. टूटी बिखड़ी कड़ियों के बीच एक ढीला ढाला सी ही सही पर सूत्र बंधा रहता है. वस्तुतः यह ढीला ढाला सूत्र राजेश जोशी के गद्य की वह लय है जो उन्हें लोक व्यवहार से मिली है. इस अर्थ में लेखक स्वयं क़िस्सागो (गप्पी) होकर कथासरित्सागर के सूत्रधार की तरह क़िस्सा कोताह में बसा है. अपने शहर और समय के क़िस्सों के साथ वह पाठक को ऐसा बहा ले जाते हैं कि न वक़्त का खयाल रहता है न जगह का.

दरअसल आख्यान मनुष्य का मूल स्वभाव है. मानव सभ्यता ने जिस तरह अपने विकास क्रम में कलाओं को विकसित किया उसी तरह आख्यानकों ने भी लोक सभ्यता को जीवित रखा. क़िस्सा या आख्यान कोई दर्शन नहीं बल्कि लोक संवेदना का ही एक अंग है.  कथासरितसागर से लेकर सम्पूर्ण पौराणिक वर्णना का शिल्प यही है - कोई एक क़िस्सा सुनता है और फिर वह एक कुशल नैरेटर (क़िस्सागो) की तरह उसे आगे और आगे, और आगे ले जाता है. आज आधुनिक विमर्शों और बौद्धिक बहसों के बीच जब साहित्य अपने लोक रूपों से अलग थलग तमाम तकनीकि मीडिया केंद्रित बहसों में जकड़ा है तब राजेश जोशी बनी बनाई मानसिकता पर चोट करने का साहस कर अपनी प्रतिबद्धता सिद्ध करते हैं.

राजेश जोशी क़िस्सा कोताह से नैरेटेलॉजी की परम्परा को नए संदर्भों और अर्थों में प्रस्तुत करते हैं। पौराणिक वर्णना शैली के केन्द्र में जहाँ मनुष्य के वे सारे संबंध हैं जो उसने मनुष्यों, मनुष्येतर प्राणियों, नदियों, पहाड़ों, जंगलों के साथ समय और दिशाओं के साथ, देवों और असुरों के साथ बनाए हैं या बना सकता है वहीं राजेश जोशी के क़िस्सों के केन्द्र में मनुष्य के वे सारे संबंध हैं जो उसे कई अर्थों में आधुनिक मनुष्य के रूप में स्थापित करते हैं. जिनके केन्द्र में इतिहास, राजनीति, सामाजिक-आर्थिक चेतना, व्यक्ति स्वतंत्रता, सामजिक जुड़ाव आदि हैं. वह व्यक्ति जो लोक संवेदना और सामाजिक विकास दोनों को महत्व देते हुए स्वयं को अपने समाज के साथ जीवित रखने की अदम्य जिजीविषा से भरा है.

क़िस्सागो और क़िस्सागोइ के बीच गुज़रता यथार्थ राजेश जोशी की इस गद्य रचना को गल्प या आख्यान के नए और आधुनिक संदर्भों से जोड़ता चलता है. इसे कभी गप्पी का रोज़नामचा तो कभी कोरी गपड़तान कहते कहते लेखक विलीनीकरण आंदोलन की समाप्ति, सी स्टेट की पहली सरकार, अंग्रेज़ों की छावनी, कन्ट्रोल के दिन, चुनावों की सरगर्मी, जामा मस्जिद और लुकमान अली की यादें, भोपाल से शहर से राजधानी हो जाना, भारत में भोपाल के विलय के साथ क़िस्सों के ज़रिए शहर और लोगों की बदलती तबियत, चेहरा और फितरत दिखाते चलते हैं. इतिहास के भीतर से होकर आते ये क़िस्से अपनी तमाम संवेदना के साथ भले ही तथ्यात्मक रूप में इतिहास न हों परन्तु अपने समय और समाज के आवश्यक दस्तावेज़ तो हैं ही. गल्प इतिहास नहीं है, वह अतीत और स्मृतियों के बीच बसा किसी क़िस्सागो का दृष्टिकोण है इसलिए क़िस्सों का नगर क़िस्सों ने रचा है, उसमें आना है तो तथ्यों की ज़िद छोड़कर आओ. यह ज़िद छोड़ना पूर्वाग्रह को तोड़ना ही है. इसी में स्वतंत्रता का भाव भी अंतर्निहित है. उन्मुक्तता और स्वतंत्रता क़िस्सा कोताह के केन्द्र में है और इन क़िस्सों का क़िस्सागो यानी गप्पी इस आज़ादी के लिए लड़ने वाला सिपाही. गप्पी के चरित्र की खासियत यह है वह उन्मुक्तता का पक्षधर है इसीलिए उड़ना गप्पी का प्रिय शब्द था. यह उड़ना गप्प के मुक्त भाव से मिलता ही नहीं बल्कि उसके समान ही है.

राजनीतिक-सामाजिक घटनाओें के बीच जिस तरह एक नए गप्पी का जन्म होता है उसी तरह एक नए व्यक्ति (पाठक) का भी जन्म होता है. क़िस्सा अपनी पूरी क्षमता के साथ लेकिन सतर्कता से क़िस्सागोइ की कुशलता का इस्तेमाल करता है. इस सतर्कता में सहजता भी है. इतनी सहजता कि भाषा अनपेक्षित रूप से गल्प और यथार्थ में आवाजाही करती है. राजेश जोशी लिखते हैं ‘‘क़िस्सों का नगर ऐसा नगर है जहाँ हमारे पूर्वज हमेशा ज़िंदा रहते हैं, वे ज़िंदा लोगों की तरह बोलते, बतियाते, हँसते-गाते हैं और बाज वक्त नाराज़ भी होते हैं.’’ राजेश जोशी परम्परा के प्रति अपना उत्तरदायित्व और जवाबदेही पूरी ईमानदारी के साथ निभाते और व्यक्त करते हैं. वे जानते हैं कि क़िस्से भले क़िस्से हों लेकिन वे फिर भी पूरी सतर्कता की माँग करते हैं. भले ही इनमें बहुत कुछ जुड़ता-घटता रहे, भले ही वक़्त के साथ-साथ ये बदलते रहें.

क़िस्सा कोताह में जितनी विविधता से भरे क़िस्से हैं उतने ही विविध क्षमताओं वाले क़िस्सागो भी हैं. गप्पी की कुशलता कुछ ऐसी थी कि वह कुछ नहीं से बहुत कुछ बना सकता था. चिंदी से पूरा थान बना सकता था. फूँक को तूफान बना सकता था. गप्पी एक रौशन दिमाग़ गप्पी था. उसका दिमाग़ कमाल का कारखाना था जिसमें निरंतर गप्पों का उत्पादन होता रहता था. क्या यहाँ आख्यानकों के सबसे प्रसिद्ध क़िस्सागो गुणाढ्य की याद नहीं आती जिन्होंने जब कथा कहना आरंभ किया तो लोग ही नहीं पशु-पक्षी भी अपने स्थान से हिले बिना दिवसों तक बैठे सुनते रहे, सुनते रहे. क़िस्सागोइ की यह कुशलता गप्पी को अपनी परम्परा का उत्तराधिकारी स्वयं घोषित करती है. बकौल रचनाकार ‘‘गप्पी अगर आपको इन क़िस्सों को सुना रहा होता तो क़िस्सों का मज़ा ही कुछ और होता.’’ फिर भले यह क़िस्सागो (गप्पी) स्वयं लेखक है किन्तु बीच-बीच में आए ये संवाद एक सूत्रधार की परिकल्पना साकार करते हैं जो लेखक को रचना से स्वतंत्र करने का माध्यम बनता है. क़िस्सों के इस शहर में स्त्रियाँ भी कम कुशल क़िस्सागो नहीं हैं. गप्पी की फुफेरी बहन तो क़िस्सों की पोटली थी और सीहोर वाली चाची क़िस्से तो ऐसे सुनातीं मानों क़िस्सों की खुद चश्मदीद गवाह हो. यह कौशल अतीत, इतिहास और गल्प के अंतर को धुंधलाकर ऐसे परोसता है कि सुननेवाला अंदाज़ा ही लगाता रह जाए कि यह हक़ीक़त है या क़िस्सा.

अब तक साहित्य में नए भाषा प्रयोगों पर कई मर्तबा चर्चाएँ हुई हैं लेकिन क़िस्सा कोताह के विशेष संदर्भ में भाषा अपने परम्परागत रूप को, चलन को नए ज़माने के बीच ले आती है. बुर्रुकाट भोपालिए जब तक गालियाँ न दें तब तक भोपालिए नहीं कहलाते. मानों गाली बकने का लाइसेंस भोपालियों को ही मिला हो. गालियाँ तो अभद्र और अश्लीलता का वातावरण तैयार करती हैं लेकिन राजेश जोशी बड़ी सतर्कता से अपनी अद्भुत और रोचक शैली में कोष्ठक को भाषा का कान बना उसी में सुना देते हैं यह पूरा गाली प्रसंग. भोपालियों की गालियों और गुलाबी उर्दू का साथ-साथ ज़िक्रकर वे दोनों के बीच एक प्रकार से संतुलन बैठाते हैं और भोपाल के बहाने हर शहर की मिली-जुली संस्कृति की छवियाँ दिखाते हैं. राजेश जोशी के शब्दों में ‘‘सारे क़िस्सों की शक्लें चाहे आपस में न मिलती हों लेकिन उनमें कुछ न कुछ ऐसा ज़रूर होता है जो एक दूसरे से मिलता-जुलता है. सबका रोना लगभग एक-सा और सबकी हँसी एक-सी.’’

नीत्शे ने कहा था देयर आर नो फैक्ट्स ओनली इंटरप्रिटेशन की सृष्टि में तथ्य नहीं सिर्फ व्याख्याएँ हैं और इस अर्थ में हम सभी व्याख्याओं के ज़रिए अपनी कथा कहते गल्पकार। राजेश जोशी अपने इसी गल्पकार के माध्यम से यथार्थ के भीतर से होते हुए क़िस्सों के एक ऐसे शहर में ले जाते हैं जहाँ अतीत से लेकर भविष्य तक एक खुला गलियारा है. चहलकदमी करने की खुली छूट.
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अपराजिता शर्मा
असिस्टेंट प्रोफेसर
मिरांडा हाउस
दिल्ली विश्वविद्यालय


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